कुछ राजनीतिक सा हो जाये !!

                         
                           मित्रो बस अभी- २ होली गयी है । ऐसे में यदि राजनीतिक होली की  बात न की जाये तो थोड़ा अटपटा सा लगता है जबकि ये हर साल न आके ५ सालों बाद खेली  जाती है । मीडिया, रेडियो, अखबार, दीवारें और ऊँचे-२ होर्डिंग सभी चुनावी रंग में दिख रही हैं । यह रंगहीन गन्धहीन होली यही  कुछ २-३ महीने की होती है, जिसमे शब्दों के रंग भरकर अलंकारों से भरी भाषाओं युक्त वांग्य वाण सापेक्ष या परोक्ष रूप से चलाये जाते हैं । लोक लुभावने वादे किये जाते हैं, यदि आपने पहले किये थे और सत्ताधारी हैं तो पूरा होने का दावा करते हैं; वहीं यदि आप विपक्ष में थे तो सब ख़ारिज  कर देते हैं जैसे सत्ताधारी सिर्फ और सिर्फ आराम कर रहे थे । इन सब से दूर यदि धरातल पर परीक्षण किया जाये तो कहीं तो इन वायदों की जानकारी ही नहीं है, तो कहीं थोड़ी बहुत कामयाब होती दिखती हैं । परन्तु ध्यान देने वाली बात ये है की जहाँ इनकी सर्वाधिक आवश्यकता थी वहीं इनकी जानकारी तक नहीं है लोगों को।

                          शायद अभी भी हम लोकतंत्र से काफी दूर हैं, हो सकता है हम इस बात से सहमत न हों परन्तु यथार्थ यही है। यदि हम किसी एक पार्टी के समर्थक हैं, तो हमें मतलब नहीं है की हमारी कितनी उपेक्षा हुयी है हमें किसी विचार या मुद्दे से मतलब नहीं रहता, हम तो अंधभक्त रहते हैं। एक जमीनी कार्यकर्ता होते हैं जो किसी बात से तो उस दल के भक्त हैं, वहीँ दूसरी ओर जो उन्हें अपनी पार्टी के प्रति आत्मविश्वास में लेते हैं उनका ही ठीक नहीं कब दल बदल लें। गंगा सी पवित्र विचारधाराओं से शुरू होकर राजनैतिक होली कीचमय वक्तव्यों की तरफ पलटी मार लेती है । मतदाताओं से उम्मीद की जाती है की वे किसी के बहकावे में नहीं अस्तु अपने विचारों से अपने मत का उपयोग करेंगे। जबकि नेता अपने विचारों से प्रभावित करने की बजाये अनेकानेक तरीके अपनाते हैं जिससे न तो  मीडिया बच पाया है और नाही आधुनिकतम सोशल मीडिया।

                        यदि मीडिया और  आधुनिकतम सोशल मीडिया की दुनिया से बाहर निकल कर हम अलग -२ विचारधारा के लोगों से मिलते हैं तो यही पता चलता है कि राजनीति केवल विचारों या विकास की बातों तक सीमित नहीं है बल्कि यह जाति, वर्ण, वर्ग, सम्प्रदाय में अभी भी प्रासंगिक है। इस  राजनीति को राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक सभी चेतनाओं में सकारात्मक पहलू के रूप में देखा जा सकता है।  जहाँ समाज में कई लोगों को इस होली के दौरान रोजगार मिल जाता है उदाहरण स्वरुप - बड़ी -२ रैलियों में खोंचे वाले, पानी पिलाने वाले, झंडे बेचने वाले, बाँस बल्ली लगाने वाले, इत्यादि । अर्थात बाद में रोजगार मिले  न मिले कम से कम इस दौरान तो आर्थिक रूप से लाभ हो ही रहा है ।

                       वहीं रैलियों में बड़े नेताओं के आगमन से पहले जो स्थानीय छोटे मझोल नेता हैं उन्हें अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करने का उपयुक्त समय रहता है। किसी न किसी प्रकार ये ब्रिगेड भी मजबूत होती दिखती है जिसके हांथों में भविष्य का निर्वाह होने वाला है। बड़े नेता अपनी प्रतिद्वंदी पार्टी के नेताओं में चेतना का प्रसार तो करते ही हैं। एक दूसरे का भाषण बड़े ध्यान से सुनके और अपने ऊपर लगाये गए आरोपों के जवाबों  की तैयारी तो वहीं दूसरे पर आरोपों की लिस्ट तैयार करते हैं। अपनी-२ जातियों में  पकड़ बनाने में नेता लोग भले ही अप्रत्यक्ष रूप से हो, लेकिन जन जागरण अभियान चलाते हैं । वो दिन दूर नहीं जब जनता सच में जनार्दन हो जाएगी, अब प्रत्यक्ष दिखाई देने लग गया है जब जन -२ किसी जाति, वर्ण, वर्ग, सम्प्रदाय के आधार पर नहीं बल्कि विचारों और विकास से जुड़ेगा।

  

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